एक मुद्दत से आरजू थी फुरसत की,मिली तो इस शर्त पे कि किसी से ना मिलो।

एक मुद्दत से आरजू थी फुरसत की,
मिली तो इस शर्त पे कि किसी से ना मिलो।

शहरों का यूँ वीरान होना कुछ यूँ ग़ज़ब कर गई,
बरसों से पड़े गुमसुम घरों को आबाद कर गई।

ये कैसा समय आया कि,
दूरियाँ ही दवा बन गई।
जिंदगी में पहली बार ऐसा वक़्त आया,
इंसान ने जिन्दा रहने के लिए कमाना छोड़ दिया।

घर गुलज़ार, सूने शहर,
बस्ती बस्ती में कैद हर हस्ती हो गई,
आज फिर ज़िन्दगी महँगी
और दौलत सस्ती हो गई।

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