Dahsama ka var 25 julay 2025 ko hai
The Story of Nala-Damayanti
एक समय की बात है, राजा नल प्रातः नहा-धोकर वस्त्रालंकार से सुसज्जित होकर दरबार में गया। रानी दमयंती महल की खिडकी के पास बैठकर बाहर सरोवर का अवलोकन कर रही थी। उसने देखा कि सरोवर के किनारे कुछ स्त्रियाँ श्रृंगार सज कर हाथ में पूजा की थाली लिये पूजा कर रही थी। दमयंती को कुतुहल हुआ कि वे क्या कर रही थी। उसने अपनी दासी को इसका पता लगाकर आने को कहा।
दासी सरोवर किनारे गई और एक स्त्री को पछा, "हमारी रानी जानना चाहती है कि आप क्या कर रही है।"
वह स्त्री बोली, "आज दशामाँ का दिन है। हम दशामाँ का डोरा बाँध रहे हैं।"
दासी दमयंती के पास वापस आई और उस स्त्री के साथ हुई बातचीत दोहराई।
1 दमयंती ने कहा, "तू भी वहाँ जा और मेरे लिये दशामाँ का डोरा ले आ।"
दासी उन स्त्रियों पास गई और कहा, "हमारी रानी के लिये डोरा दो।"
वह स्त्रीने कहा, "गोकुलाष्टमी के दिन सूत के नौ तार और अपने वस्त्र का एक तार इकट्ठा करके दस तार का डोरा बनाकर हाथ के उपर के भाग में बाँधना चाहिए। दशामाँ के इस डोरे के प्रभाव से मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। इस डोरे का अनादर करने से अनेक प्रकार की विपत्तियाँ आती है। उनसे बचने के लिये दशामाँ का व्रत लेना चाहिए। लेकिन तुम्हारी रानी यह सब कर सकती है तो दशामाँ का डोरा ले जाओ।"
दासी ने दशाफल का डोरा लाकर दमयंती को दिया। यह नौ तार का डोरा था। अपने वस्त्र का एक तार डाल कर धूप-दीप से डोरे का पूजन करके दमयंती ने उसे अपने दाहिने हाथ पर बाँधा और श्रद्धा से व्रत की विधि की। सायंकाल को राजा मृगया के बाद महल में लौटा तो रानी सिंगार सज कर बैठी थी। उसके हाथ पर डोरा बँधा हुआ था।
राजा ने पूछा, "यह डोरा कैसा?"
रानी ने कहा, "यह दशाफल का डोरा है। मैं दशामाँ का व्रत लिया है। इससे हम किसी भी विपत्ति से मुक्त रहेंगे।"
राजा बोला, "हमारे पास धनसंपत्ति, सुखशांति आदि सबकुछ है। फिर इस डोरे की क्या जरूरत है?"
उसने वह डोरा तोड डाला और पास ही में सुलगती अग्नि में डाल कर जला दिया।
राजों ने दशामाँ के डोरे का अपमान किया था। डोरा जैसे जैसे जलता गया वैसे वैसे नैषध देश की सुख-समृद्धी घटने लगी। अकाल पडने लगा। लोग भूख से मरने लगे। प्रजा खाने की तलाश में परदेश चली गई। पडोश के राजा ने आक्रमण किया और राजा की राजगद्दी छिनकर नगर से बाहर निकाल दिया। राजा और रानी परदेश की और चल पडे।
वे चलते गये, चलते गये...
एक देश...
दूसरा देश...
फिर तीसरा...
आखिर वे कनकावती नगर आये जहाँ मोतीसर तालाब था। राजा-रानी तालाब के किनारे बैठे। उन्हें जोरों की भूख लगी थी। राजाने तालाब में जाकर पाँच मछलियाँ पकडी और दमयंती को दी और कहा, "तुम इनको धोकर तैयार करो। तब तक मैं नगर में जाकर कुछ रोटी-खिचडी का बंदोबस्त करके लौटता हूँ।"
राजा नगर में गया। नगर का नगर शेठ हररोज गरीबों और भिक्षुकों को भोजन कराता था। राजा ने उसे अपनी व्यथा सुनाई तो शेठ ने उसे एक बडे पात्र में पके हुए चावल दिये। राजा उस पात्र कों सिर पर रखे तालाब की और जा रहा था। इतने में एक चील उडती हुई आई और राजा के सिर पर रखा पात्र अपने दोनों पंजों के बीच दबाकर ले उडी। राजाने उपर देखा तो पात्र में चावल का एक दाना गिर कर उसकी मूँछ में चिपक गया।
राजा निराश होकर दमयंती के पास लौटा और उसे जो घटना घटी थी वह सुनाई। लेकिन उसकी मूँछ में चिपका दाना देखा। उसे राजा की नियत पर शक हुआ।
राजाने कहा, "वह मछलियाँ कहाँ है?"
रानी ने कहा, "उन मछलियों न्को न जाने क्या हुआ कि वे सजिवित होकर तालाब में जा गीरी।"
"क्या ?"
"हाँ, मैं सच कहती हूँ।'
है?" राजा ने पूछा, "लेकिन मृत मछलियाँ सजिवित कैसे हो सकती
रानी ने कहा, "मेरे दाँये हाथ में अमरबेल है। उसके स्पर्श से कोई भू मृत जीव जीवित हो जाता है।"
राजा क्रोधित हो उठा और कहा, चावल से भरा पात्र चील ले उडी और मैं भूखा का भूखा ही रहा। तूने सारी मछलियाँ खा ली। तूं स्वार्थी है। अब तुं मेरी रानी नहि।"
रानी ने कहा, "किन्तु..."
"मैं कुछ सूनना नहीं चाहता।"
रात को जब वे दोनों सो गये तो राजा मन ही मन अब भी दमयंती पर खफा था। उसे यह समज में न आया कि सब कुछ दशामाँ के क्रोध का परिणाम है। उसने रानी का त्याग करने का फैसला कर लिया।
उसने रानी की ओर देखा तो वह सो रही थी। राजा उठा और उसे अकेली वन में छोडकर निकल पडा।
दूर गया तो उसने जंगल में भयानक आग जलती देखी। उस आग में एक काला सर्प जल रहा था। नल ने उसे बचा लिया। सर्प ने उसे कहा, "मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। कोई वर माँगो। राजा ने कहा, "मुझे अपना काला रंग दो और कुरुप बना दो।" सर्प ने वैसा ही किया और कहा, "जब भी असली रुप पाना हो, मुझे बाद करना, मैं आकर फिर से तुम्हें सुंदर बना दूँगा।"
राजा नल काला शरीर और कुरुप मुख लिये आगे बढ़ा। वह एक नगर में पहुँचा। राजा अश्वविद्या में अत्यंत कुशल था। उसे अश्वशाला में अश्वों को तैयार करने की नौकरी मिल गई।
उधर सुबह हुई और दमयंती की नींद खुली तो नल को अपने पास न पाकर घोर कल्पांत करने लगी। रोती कलपती इधर-उधर भटकती वह एक नगर के पास आई। वह नगर उसके पिता का था। उसने दासी को बुलाया। दशामाँ के कोप के कारण वह उसे पहचान न सकी। दासी को बिनती करके वह भी महल में दासी बनकर काम करने लगी। उसका कार्य भोजन बनाना, अपनी रानी अर्थात् माँ के केश गूंथना और उसकी अन्य सेवाएँ करना था। महल में उसके मातापिता तो क्या और कोई भी पहचान न सका। उसके भी किसीको अपना परिचय नहीं दिया।
इस प्रकार सेवा करते करते दिन बीतते गये। सप्ताह पर सप्ताह
संकट नष्ट हो जायेंगे ।"
सपने में ही दमयंती ने इष्टदेव से कहा, "हे प्रभु, मेरे पास तो कुछ नहीं है। दीप जलाने को घी कहाँ से लाउं?"
इष्टदेव ने कहा, "घोडे की लींद से दिप बना, पूजा में सुपारी के स्थान पर एक चना रख। ऐर दिप में घी की जगह घास का बुरादा पुरना। मैं पाँच साल का बालक वन कर आऊँगा और तेरी कथा सुनूँगा।"
दमयंती ने इष्टदेव की सूचनाओं का पालन किया। इष्टदेव ने पाँच गाल के बालक का रूप लिया और कथा सुनने बैठे। कथा समाप्त हुई। पूजा में रखी हुई सभी चीजें सान की हो गई।
उसी दिन दशामाँ ने दमयंती के पिता को सपने में कहा, 'हे राजा, तेरे घर जो नई दासी आई थी वह कहाँ है ?'
राजा ने कहा, 'वह तो चोर है। हमने उसे महल के बाहर निकाल दिया।' दशामाँ ने कहा, 'नहीं, वह निर्दोष है। वह अभी अश्वशाला में है। उसने मेरे व्रत का समापन किया है। मैं उस पर प्रसन्न हूँ। उसे वापस बुला ले। वह दासी नहीं, तेरी पुत्री दमयंती है।"
राजा ने तुरंत दमयंती को महल में बुलवाया और पूछा, "तुं कौन है?"
दमयंती उसके पैरों में पड़ी और कहा, "मैं ही आपकी पुत्री दमयंती हूँ। मैंने दशामाँ का डोरा बाँधा था लेकिन मेरे पति नल राजा ने उसे तोडकर अपमानित किया। उसीके कारण हमारी यह अवदशा हुई है।
अब रानी दमयंती पिता के घर आनंद से रहने लगी। दिन पर दिन बीते।
दमयंती एक सुशील नारी थी। राजा नल के बिना उसे चैन पडता नहीं था। वह सदैव उसे ही याद किया करती थी। यह बात उसके चहेरे पर उसके पिताने पढ ली।
राजा ने रानी से कहा, "दमयंती का विवाह किसी और से कर दें तो कैसा रहेगा ?"
रानी ने कहा, "ठीक है।"
उन्हों ने यह बात दमयंती से कही तो उसने कहा, "पिताजी सिर्फ नल ही मेरे पति है। कुछ भी करो लेकिन कैसे भी राजा नल को खोजो।"
"लेकिन कैसे ?" दमयंती ने कहा, "मेरा स्वयंवर रचिए उसमें देस-परदेश से राजा आएंगे। उन सब में मैं राजा नंल को पहचान कर उनके गले में वरमाला डालूँगी।"
का दमयंती के पिताने उसकी बात मानकर स्वयंवर रचाया। सब राजाओं को आमंत्रण भेजा गया। नल जिस राजा के वहाँ अश्वशाला में काम करता था उस राजा को भी आमंत्रण मिला। बहुत समय न था। उसने नल से कहा, "अच्छे से अच्छा घोडा निकालो। हमें स्वयंवर में जाना है।" नकारी
नल ने रथ तैयार किया। दमयंती के पिता नल की खोज में थे। उन्हों ने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज कोई अग्नि नहीं जलाएगा। उन्होने अपने गुप्तचरों को भी आदेश दिया कि चारों ओर नजर रखना।जी
इस तरफ नल के राजा को भूख लगी तो उसे खिचडी खिलाने के लिये हाथ से अग्नि जलाकर खिचडी पकाई। गुप्तचरों ने यह बात राजा को कही, राजाने यह बात दमयंती को दोहराई।
दमयंती खुश हुई।
वह जानती थी कि ऐसा सिर्फ उसका पति नल ही कर सकता था। तुरंत ही उसने स्वयंवर की हाथिनी को श्रृंगार करवाया और कलश लेकर चल पडी राजा कतारबंध खडे थे। हाथिनी उनके पास से गुजरी।
पहला राजा...
दूसरा राजा...
तीसरा राजा.सिक
मिस ए
फिर से हाथिनी ने कुरुप राजा नल पर की कलश उतारा। दमयंती नल के पास गई और उसके पैरों में पडकर गिडगिडाने लगी, "मैंने आपको पहचान' लिया है। अब आप अपना यह रूप बदलकर अपने असली स्वरूप में आइए।"
राजा नल ने सर्प को याद किया। उससे मूल स्वरूप वापस देने की बिनती की। थोडी ही क्षणों में काल, कुरूप नल स्वरूपवान हो गया। नल और दमयंती अब सुखचैन से रहने लगे।
दिन पर दिन बितते गये, दशाफल के डोरे र व्रत के कारण राजा नल की दशा बदल गई। रानी दमयंती के साथ उन्हों ने नैषध देश की और प्रस्थान किया। दमयंती के पिताने उन्हें सुवर्ण मोहरें और हाथीघोडा आदि दिये थे।
रास्ते में कनकावती नगरी और मोतीसर तालाब आये। तालाब के पास दमयंती ने थोडा विश्राम लेना चाहा। तालाब के किनारे बैठी तो एक कोने से पाँच सोने की मछलियां पड़ी मिली।
वे आगे बढ़े।
नगरसेठ का नगर आया। सेठने जिस पात्र में राजा को भोजन दिया था वह पात्र भी सोने का होकर रास्ते में पड़ा था।
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